हिंदी सिनेमा के शुरुआती स्टूडियोज़ पर पश्चिमी सिनेमा की छाप दिखती थी.
बॉम्बे टॉकीज़ में जर्मन सिनेमा का असर था, आरके स्टूडियोज़ में चार्ली चैपलिन की झलक और गुरु दत्त, देव आनंद की शुरुआती फ़िल्मों में हॉलीवुड के थ्रिलर्स का प्रभाव था.
इन सब के बीच लेकिन एक स्टूडियो था, जो भारतीय संस्कृति, साहित्य और संगीत को अपनी बुनियाद बना कर चला- वी. शांताराम का राजकमल कलामंदिर.
राजकमल की फ़िल्में, पात्र और यादगार गीत जैसे 'आधा है चंद्रमा रात आधी', 'पंख होते तो उड़ आती' और 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम', शास्त्रीय संगीत और भारतीयता से गहरे जुड़े हुए थे.
माता-पिता के नाम पर रखा राजकमल कलामंदिर का नामभारत की पौराणिक कथाओं, इतिहास और समाज पर फ़िल्में बनाने की प्रेरणा वी शांताराम को भारत के पहले संगठित स्टूडियो प्रभात फ़िल्म कंपनी से ही मिली थी जहां वो स्टूडियो के क्रिएटिव प्रमुख और निर्देशक हुआ करते थे.
1942 में उन्होंने पुणे के प्रभात स्टूडियो से नाता तोड़कर मुंबई का रुख़ किया. यहां के परेल इलाके में बसे वाडिया मूवी टाउन को ख़रीदा और उसे नाम दिया राजकमल कलामंदिर.
ये नाम उनके पिता राजाराम और माता कमला के नाम से लिया गया था. मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में ये राजकमल स्टूडियो के नाम से मशहूर हुआ.
कैसे अलग थीं राजकमल कलामंदिर की फ़िल्में?शांताराम की फ़िल्मों में एक ख़ास बात थी, जो उन्हें दूसरों से अलग बनाती थी. उनकी फ़िल्मों में मराठी परिवेश, संस्कृति और वहां के नाटकों की गहरी छाप थी.
उस दौर में बंबई की शुरुआती फ़िल्मों में पारसी थिएटर का साफ़ असर दिखता था. लेकिन शांताराम ने इसे नहीं अपनाया. उनकी फ़िल्मों में मराठी थिएटर का एक बिल्कुल अलग कलेवर था.
शांताराम का मानना था कि फ़िल्मों का सिर्फ़ एक मक़सद मनोरंजन नहीं होना चाहिए. बल्कि समाज के संघर्षों की तरफ़ भी ध्यान आकर्षित किया जाना चाहिए.
राजकमल कलामंदिर में पूरी तरह वी. शांताराम के विज़न के तहत फ़िल्में बनती थीं. वे प्रभात स्टूडियो से आए थे और उसी की तर्ज़ पर एक गंभीर मध्यवर्गीय संस्कृति और नियमों को यहां भी कायम रखा गया.
दूसरे स्टूडियोज़ से अलग राजकमल स्टूडियो पूरी तरह आत्मनिर्भर स्टूडियो था. शूटिंग उपकरणों के साथ-साथ इसकी अपनी ब्लैक एंड व्हाइट लैबोरेट्री, स्टिल्स डिपार्टमेंट और पोस्टर डिपार्टमेंट तक था.
इसके अलावा मुंबई के दादर में अपना सिनेमाहॉल प्लाज़ा सिनेमा और सिल्वर स्क्रीन एक्सचेंज नाम की अपनी डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी भी थी.
एक और ख़ास बात थी. राज कपूर के साथ साथ दूसरे फ़िल्मकारों ने स्टूडियो से बाहर निकलकर आउटडोर शूटिंग का ट्रेंड शुरू किया जो आज तक जारी है. लेकिन राजकमल स्टूडियो की सारी फ़िल्मों की शूटिंग ज़्यादातर स्टूडियो के अंदर ही हुई.
प्रभात कंपनी के दौर से ही, शांताराम ने वही विषय और कहानियां चुनीं, जो उस समय मराठी नाटकों में लोकप्रिय हो रही थीं. राजकमल स्टूडियो की पहली फ़िल्म महाकवि कालिदास की शकुंतला पर आधारित थी जो बड़ी हिट रही.
शकुंतला (1943) मुंबई के स्वास्तिक थिएटर में सौ हफ्ते से ज़्यादा चली. इस कामयाबी ने वी. शांताराम को नयी भारतीय कहानियां कहने की हिम्मत दी.
अगली फ़िल्म 'पर्बत पे अपना डेरा' भी सिल्वर जुबिली रही और इसके बाद शांताराम ने एक सच्ची कहानी पर एक बड़ी फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया.
भारतीय डॉक्टर डॉ. द्वारकानाथ कोटनीस को दूसरे विश्व युद्ध के दौरान चीन में जापानी आक्रमण के ख़िलाफ़ लड़ने वाले सैनिकों को चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए भेजा गया था. लेखक ख़्वाजा अहमद अब्बास ने डॉ. द्वारकानाथ कोटनीस की जीवनी लिखी थी. उसी कहानी पर बनी राजकमल स्टूडियो की अगली फ़िल्म- 'डॉ. कोटनीस की अमर कहानी'.
हीरो ख़ुद वी शांताराम ही थे. साल था 1946 जब देश का स्वतंत्रता आंदोलन भी चरम पर था. फ़िल्म ने धूम मचा दी और सही मायने में राजकमल स्टूडियो को स्थापित कर दिया.

ये फ़िल्म 'द जर्नी ऑफ डॉ. कोटनीस' के नाम से अमेरिका में भी रिलीज़ हुई और वेनिस फ़िल्म फेस्टिवल में भी गयी. देश की आज़ादी से लेकर अगले आठ साल तक राजकमल स्टूडियो ने सामाजिक फ़िल्में बनायीं.
'जीवन यात्रा' (1947) राष्ट्रीय एकता की कहानी थी, 'अपना देश' (1949) भ्रष्टाचार और कालाबाज़ारी के मुद्दे पर, तो 'दहेज' (1950) दहेज प्रथा के ख़िलाफ़ कहानी थी.
अपनी फ़िल्मों में वी शांताराम सरल तरीके से उस दौर के भारतीय समाज की कहानियां कह रहे थे और विधवा विवाह और जाति जैसे मुद्दे तक उठा रहे थे.
जब फ़िल्में पिटीं तो कैसे हुआ कमबैक?1950 के बाद मनोरंजक फ़िल्मों और हिट गीत-संगीत वाली नए ज़माने की कमर्शियल फ़िल्मों के सामने शांताराम की फ़िल्में अचानक पिटने लगीं. 'परछाईं', 'सुरंग', 'सुबह का तारा' और 'तीन बत्ती चार रास्ता' जैसी सामाजिक फ़िल्में फ्लॉप हुईं.
दर्शकों को अब राज कपूर, महबूब ख़ान की भव्य कमर्शियल फ़िल्में और दिलीप कुमार-देव आनंद जैसे स्टाइलिश सितारों की फ़िल्में भाने लगी थीं.
इस चुनौती के सामने वी शांताराम ने अपने स्टूडियो के सामाजिक फ़िल्मों के विषय से अलग हटकर एक म्यूज़िकल फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया.
दो डांसर्स की ये प्रेम कहानी भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य की पृष्ठभूमि पर थी. फ़िल्म का नाम था 'झनक झनक पायल बाजे'. टेक्नीकलर में बनी ये फ़िल्म राजकमल स्टूडियो की अब तक की सबसे महंगी फ़िल्म थी जिसे बनाने में दो साल लगे.
साल 1955 में रिलीज़ इस फ़िल्म ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिए. राज कपूर की 'श्री 420' और दिलीप कुमार की 'आज़ाद' के बाद साल की तीसरी सबसे हिट फ़िल्म बनी और उस साल का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी जीता.
पूरी इंडस्ट्री को लग रहा था कि अब तो राजकमल स्टूडियोज़ और वी शांताराम की अगली फ़िल्म भी झनक झनक पायल बाजे की तरह ही रंगीन, भव्य, रोमांटिक म्यूज़िकल फ़िल्म होगी. लेकिन राजकमल की अगली फ़िल्म ने सबको चौंका दिया.
वी शांताराम को पता चला कि महाराष्ट्र के सतारा के पास जेल में एक अनोखा प्रयोग किया गया है जहां क़ैदियों को सुधारने के लिए एक बड़ी, खुली जेल में रखा जा रहा है.
अपराधी को दंडित करने से ज़्यादा उसकी मानसिकता को बदलने और उसे समाज में शामिल करने का ये आइडिया शांताराम को पसंद आ गया. लेकिन उन्होंने फ़ैसला किया कि इस विषय पर 'झनक झनक पायल बाजे' की तरह रंगीन नहीं बल्कि एक ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्म बनाएंगे. ये फ़िल्म थी- 'दो आखें बारह हाथ'.
कहानी एक जेलर (वी शांताराम) की है, जो छह ख़तरनाक अपराधियों को पैरोल पर रिहा करवाता है.
फिर उन्हें एक बंजर भूमि पर छोड़ दिया जाता है. अपनी मेहनत से वो अपराधी उस बंजर ज़मीन में फसल पैदा कर देते हैं.
1957 को भारतीय सिनेमा के सबसे अहम वर्षों में से एक माना जाता है. सोचिए इस साल रिलीज़ हुई मदर इंडिया और प्यासा के साथ दो आखें बारह हाथ साल की सबसे कामयाब फ़िल्मों में शामिल थी.
इसने ना सिर्फ़ बॉक्स ऑफ़िस पर ज़बरदस्त कमाई की बल्कि साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म और सर्वश्रेष्ठ हिंदी फ़िल्म का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी जीता.
साथ ही बर्लिन फ़िल्म फेस्टिवल में सिल्वर मेडल भी हासिल किया. भरत व्यास का लिखा और लता मंगेशकर का गाया यादगार गीत 'ऐ मालिक तेरे बंदे हम' कई स्कूलों का प्रार्थना गीत तक बना.
बदलाव के 'नवरंग' को पहचानने वाला राजकमल स्टूडियो1950 के दशक के अंत तक सामाजिक फ़िल्मों में दर्शकों का रुझान कम हो रहा था, और फ़िल्मकार खूबसूरत रोमांटिक और रंगीन फ़िल्मों की ओर रुख करने लगे थे. राजकमल स्टूडियो इस बदलाव को पहचानने वाला पहला स्टूडियो था.
गुरुदत्त की कमर्शियल रोमांटिक फ़िल्म चौदहवीं का चांद 1962 में आयी, राज कपूर की बिग बजट फ़िल्म संगम 1964 में और देव आनंद की महत्वाकांक्षी गाइड 1965 में, लेकिन इन सबसे पहले वी शांताराम ने अपनी सबसे महंगी रंगीन फ़िल्म नवरंग 1959 में ही बना दी थी.
नवरंग मराठी कवि प्रभाकर के जीवन से प्रेरित थी, जिसमें एक कवि अपनी पत्नी जमुना (संध्या) को एक गायिका और नर्तकी के रूप में कल्पना करता है.
वह अपनी कल्पनाओं में मोहिनी को देखता है, जो उसकी प्रेरणा बन जाती है. गलतफहमी के कारण जमुना अपने पति को छोड़ देती है, लेकिन अंत में दोनों के बीच सुलह हो जाती है. फ़िल्म में शास्त्रीय संगीत पर आधारित 12 गीत थे, जिनमें 'आधा है चंद्रमा रात आधी' और 'जा रे हट नटखट' जैसे ब्लॉकबस्टर गीत शामिल थे.
गीतों के भव्य फिल्मांकन से जुड़े कई नए प्रयोग भी किए गए लेकिन फ़िल्म के केन्द्र में मराठी परिवेश ही था.
नवरंग राजकमल स्टूडियो की सबसे बड़ी ब्लॉकबस्टर रही. लेकिन इसकी सफलता को राजकमल स्टूडियो दोहरा नहीं सका.
फ़िल्म इंडस्ट्री में समय का पहिया तेज़ी से घूमा था. नए सितारे और फ़िल्मकार इंडस्ट्री में आ चुके थे. शांताराम की स्त्री, गीत गाया पत्थरों ने और बूंद जो बन गयी मोती फ़िल्में पहले जैसा जादू नहीं दिखा पायीं.
1970 के दशक में तो राजकमल स्टूडियो ने सिर्फ दो फ़िल्में ही बनायीं. पहली थी जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली (1971) जिसमें गीतों का फिल्मांकन झनक झनक पायल बाजे की याद दिलाता था मगर ये ज़्यादा चली नहीं.
दूसरी थी मराठी फ़िल्म पिंजरा (1971) जो चर्चित रही और राष्ट्रीय अवॉर्ड भी जीता. लेकिन एक बात साफ हो चुकी थी कि एक फ़िल्म कंपनी के तौर पर राजकमल स्टूडियो का सुनहरा दौर गुज़र चुका है.
1972 से 1986 तक राजकमल स्टूडियो ने किसी फ़िल्म का निर्माण नहीं किया. ये अब किराए पर चलने वाले स्टूडियो की तरह काम करने लगा जहां दूसरे निर्माताओं की फ़िल्में शूट होती थीं.
सत्यजीत रे, ऋषिकेश मुखर्जी और मनमोहन देसाई जैसे निर्देशकों का बंबई में ये मनपसंद स्टूडियो हुआ करता था.
यश चोपड़ा ने भी दीवार, मशाल, डर और दिल तो पागल है जैसी अपनी कई फ़िल्मों की शूटिंग इस स्टूडियो में की.
1986 में 85 वर्ष के वी शांताराम अपने पोते सुशांत को लॉन्च करने के लिए एक बार फिर निर्देशन में लौटे. फ़िल्म का नाम था झांझर.
लेकिन नए ज़माने की फ़िल्म मेकिंग और तकनीक, पुराने अंदाज़ की इस फ़िल्म से शायद काफ़ी आगे निकल चुकी थी.
झांझर बुरी तरह फ्लॉप रही. वी शांताराम का तकरीबन 70 साल लंबा फ़िल्म करियर इस फ़िल्म के साथ ख़त्म हो गया.
'अण्णा साहेब' का योगदान
स्वतंत्र भारत में वी. शांताराम फ़िल्म इंडस्ट्री के एक मज़बूत स्तंभ के रूप में जाने गए.
अण्णा साहेब के नाम से पहचाने जाने वाले शांताराम का सम्मान सिर्फ हिंदी सिनेमा तक सीमित नहीं था, बल्कि देश की अलग अलग फ़िल्म इंडस्ट्रीज़ में उनका नाम आदर से लिया जाता रहा.
अनेक बार मुंबई फ़िल्म उद्योग में बड़े मतभेदों की मध्यस्थता के लिए उन्हें एक बड़े-बुज़ुर्ग की तरह बुलाया जाता रहा.
वो फ़िल्म उद्योग की विभिन्न संस्थाओं के अध्यक्ष और संरक्षक रहे, और 1960 से 1970 तक सेंसर बोर्ड के सदस्य भी रहे.
1985 में उन्हें सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान, दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड से नवाज़ा गया.
30 अक्टूबर 1990 को वी शांताराम का निधन हो गया. राजकमल स्टूडियो मुंबई के परेल में आज भी मौजूद है. हालांकि, यहां अब फ़िल्मों का शोर नहीं रहा.
स्टूडियो के प्रवेश द्वार से अंदर जाने पर नज़र आती वी. शांताराम की एक विशाल तस्वीर अब भी उनके अद्वितीय योगदान और इसके भीतर जन्मीं सैकड़ों कालजयी फ़िल्मों की याद दिलाती है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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