हाल ही में इटली के एमी कॉर्टी इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल में रजनीश दुग्गल की एक्स सिंड्रोम पर आधारित फ्रैजाइल' का प्रीमियर हुआ। इससे पहले बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट 'सैयारा' की नायिका अल्जाइमर जैसी गंभीर बीमारी से पीड़ित दिखाई गई, तो 'तन्वी' में की नायिका ऑटिज़्म से ग्रसित। वहीं आमिर खान की 'सितारे जमीन पर', जो डाउन सिंड्रोम पर आधारित। अलग-अलग मुद्दों पर कहानियां गढ़ने वाला बॉलिवुड अब दुर्लभ बीमारियों को भी अपनी कथाओं का हिस्सा बना रहा है।
जैसा समाज वैसा सिनेमा
साल 1939 में आई केएल सहगल की 'दुश्मन' को भारतीय सिनेमा में पहली बार टीबी जैसे रोग पर संवेदनशील तरीके से बात करने वाली फिल्म माना जाता है, जिसकी स्क्रीनिंग में वायसराय और बॉम्बे के गवर्नर तक पहुंचे थे। इसके बाद 'देवदास', 'बंदिनी', 'नमक हराम' से लेकर 'लुटेरा' तक कई फिल्मों में तपेदिक से ग्रस्त किरदारों को खून थूकते देखा गया। तब टीबी एक लाइलाज रोग हुआ करता था। फिल्मी मांएं भी इस बीमारी से जूझती दिखीं।
दिल की बीमारी और कैंसर पर बनी फिल्में
इसके बाद 'कल हो न हो', 'याद रखेगी दुनिया', 'दिल ने जिसे अपना कहा', 'अंखियों के झरोखों से' जैसी फिल्मों ने हार्ट डिसीज को लोगों तक पहुंचाया। आज बॉलिवुड के कई सितारे कैंसर से जंग जीत चुके हैं, मगर 1971 में आई क्लासिक 'आनंद' ने कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी के प्रति नायक का सकारात्मक नजरिया पेश कर लोगों का दिल जीता। इससे पहले 'दिल एक मंदिर' (1963) भी कैंसर की पृष्ठभूमि पर बनी थी। 'सफर', 'दर्द का रिश्ता', 'ए दिल है मुश्किल', 'स्काई इज पिंक', 'दिल बेचारा', 'तुलसी', 'कट्टी बट्टी', 'आशाएं' जैसी फिल्मों ने कैंसर के विभिन्न पहलुओं को छुआ।
रोमांटिक स्टोरी, सुपरहिट गाने और बीमारी
जाने -माने ट्रेड विश्लेषज्ञ अतुल मोहन कहते हैं, 'जैसे-जैसे सिनेमा परिपक्व हुआ, फिल्मकारों ने समझा कि रेयर डिजीज को न केवल रोमांटिसाइज किया जा सकता है, बल्कि इन्हें सामाजिक और भावनात्मक गहराई देने का जरिया भी बनाया जा सकता है। जब-जब जैसा-जैसा समाज रहा, सिनेमा में उसकी झलक देखने को मिली। राजेश खन्ना की 'आनंद' कैंसर पर बनी सबसे नायाब और संवेदनशील फिल्म थी। मेरा मानना है कि मेकर यदि संवेदनशील और जिम्मेदार होकर ऐसे विषयों पर फिल्म बनाता है, तो रेवोल्यूशन साबित हो सकता है। मगर फिल्म का एंटेरटेनिंग होना जरूरी है। अब जैसे 'सैयारा' में अल्जाइमर की बात की गई है, एक रोमांटिक स्टोरी और सुपरहिट गानों के साथ।'
डॉक्यूमेंट्री नहीं मुख्यधारा के सिनेमा में जगह
एक जमाना था, जब ऐसे विषयों की फिल्मों के लिए डॉक्यूमेंट्रीज का सहारा लिया जाता था। मगर 70 के दशक में 'कुंवारा बाप' और 'आ गले लग जा' ने पोलियो की मार्मिक झलक दी। 'माय नेम इज खान' (एस्पर्गर सिंड्रोम), 'गुजारिश' (क्वाड्रीप्लेजिया), 'गजनी' (अम्नेशिया), 'कार्तिक कॉलिंग कार्तिक' (सिजोफ्रेनिया), 'हंसी तो फंसी' (बाइपोलर डिसऑर्डर) जैसी फिल्मों ने रेयर डिजीज को केंद्र में लाया। 'तारे जमीन पर' ने बताया कि पढ़ाई में कमजोरी बदमाशी नहीं, डिस्लेक्सिया जैसा डिसऑर्डर भी हो सकता है। 'ब्लैक', 'यू मी और हम' और 'मैंने गांधी को नहीं मारा' जैसी फिल्मों ने अल्जाइमर व डिमेंशिया को मानवीय संवेदना से दिखाया। बातचीत में तकलीफ संबंधी टूरेट्स सिंड्रोम को पर्दे पर 'हिचकी' के जरिए पहली बार लाया गया।
'गंभीर विषय वाली फिल्म में कहानी का एंगेजिंग होना चाहिए'
'बर्फी' में ऑटिज्म से पीड़ित प्रियंका चोपड़ा और बोल-सुन न सकने वाले रणबीर कपूर को दर्शाया गया। 'भूल भुलैया वन' के जरिए मल्टिपल पर्सनैलिटी डिसऑर्डर को साइकॉलजिकल थ्रिलर के रूप में पेश किया गया। पा जैसी फिल्म से लोगों को प्रोजेरिया जैसी बीमारी के बारे में बताने वाले फिल्मकार आर बाल्की कहते हैं, 'गंभीर विषय वाली फिल्म में कहानी का एंगेजिंग होनी चाहिए। वरना वो डॉक्यूमेंट्री होकर रह जाएगी फिर आप जब किसी रेयर डिसीज पर फिल्म बनाते हैं, तो यह और ज्यादा जरूरी हो जाता है। प्रोजेरिया जैसी बीमारी पर कहानी बनाने का विचार मुझे अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन की मस्ती भरी रिलेशनशिप के बाद आया था। लोगों को इस रेयर डिसीज के बारे में तो पता चला ही मगर साथ ही मिस्टर बच्चन को नैशनल अवॉर्ड भी मिला।'
स्टार्स पावर का असर और टैबू पर खुलकर बात
'फिर मिलेंगे' और 'माय ब्रदर निखिल' ने एचआईवी-एड्स जैसे संवेदनशील विषय पर विमर्श शुरू किया। 'शुभ मंगल सावधान' ने इरेक्टाइल डिसफंक्शन को ह्यूमर के जरिए दिखाया, तो 'वीरे दी वेडिंग' ने फीमेल सेक्सुअलिटी को सहजता से प्रस्तुत किया। 'पीकू' ने कब्ज जैसे ‘नॉन-ग्लैमरस’ विषय को मुख्यधारा में लाया। मानसिक स्वास्थ्य जैसे कभी टैबू माने जाने वाले विषयों को 'डियर जिंदगी', 'तमाशा', 'छिछोरे', 'उड़ता पंजाब', 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' जैसी फिल्मों ने सेंसिटिव ट्रीटमेंट के साथ परोसा और डिप्रेशन, एंग्जायटी, नशे की लत और आत्महत्या जैसे मुद्दों पर डिबेट होने लगी। लोकप्रिय ट्रेड एनालिस्ट तरन आदर्श कहते हैं, 'जब बड़े सितारे किसी दुर्लभ या टैबू वाली बीमारी को पर्दे पर निभाते हैं, तो उसका प्रभाव और पहुंच कई गुना बढ़ जाती है। मगर फिल्मकारों को चाहिए कि रेयर डिसीज का चित्रण सतही या अतिरंजित न हो।'
जैसा समाज वैसा सिनेमा
साल 1939 में आई केएल सहगल की 'दुश्मन' को भारतीय सिनेमा में पहली बार टीबी जैसे रोग पर संवेदनशील तरीके से बात करने वाली फिल्म माना जाता है, जिसकी स्क्रीनिंग में वायसराय और बॉम्बे के गवर्नर तक पहुंचे थे। इसके बाद 'देवदास', 'बंदिनी', 'नमक हराम' से लेकर 'लुटेरा' तक कई फिल्मों में तपेदिक से ग्रस्त किरदारों को खून थूकते देखा गया। तब टीबी एक लाइलाज रोग हुआ करता था। फिल्मी मांएं भी इस बीमारी से जूझती दिखीं।
दिल की बीमारी और कैंसर पर बनी फिल्में
इसके बाद 'कल हो न हो', 'याद रखेगी दुनिया', 'दिल ने जिसे अपना कहा', 'अंखियों के झरोखों से' जैसी फिल्मों ने हार्ट डिसीज को लोगों तक पहुंचाया। आज बॉलिवुड के कई सितारे कैंसर से जंग जीत चुके हैं, मगर 1971 में आई क्लासिक 'आनंद' ने कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी के प्रति नायक का सकारात्मक नजरिया पेश कर लोगों का दिल जीता। इससे पहले 'दिल एक मंदिर' (1963) भी कैंसर की पृष्ठभूमि पर बनी थी। 'सफर', 'दर्द का रिश्ता', 'ए दिल है मुश्किल', 'स्काई इज पिंक', 'दिल बेचारा', 'तुलसी', 'कट्टी बट्टी', 'आशाएं' जैसी फिल्मों ने कैंसर के विभिन्न पहलुओं को छुआ।
रोमांटिक स्टोरी, सुपरहिट गाने और बीमारी
जाने -माने ट्रेड विश्लेषज्ञ अतुल मोहन कहते हैं, 'जैसे-जैसे सिनेमा परिपक्व हुआ, फिल्मकारों ने समझा कि रेयर डिजीज को न केवल रोमांटिसाइज किया जा सकता है, बल्कि इन्हें सामाजिक और भावनात्मक गहराई देने का जरिया भी बनाया जा सकता है। जब-जब जैसा-जैसा समाज रहा, सिनेमा में उसकी झलक देखने को मिली। राजेश खन्ना की 'आनंद' कैंसर पर बनी सबसे नायाब और संवेदनशील फिल्म थी। मेरा मानना है कि मेकर यदि संवेदनशील और जिम्मेदार होकर ऐसे विषयों पर फिल्म बनाता है, तो रेवोल्यूशन साबित हो सकता है। मगर फिल्म का एंटेरटेनिंग होना जरूरी है। अब जैसे 'सैयारा' में अल्जाइमर की बात की गई है, एक रोमांटिक स्टोरी और सुपरहिट गानों के साथ।'
डॉक्यूमेंट्री नहीं मुख्यधारा के सिनेमा में जगह
एक जमाना था, जब ऐसे विषयों की फिल्मों के लिए डॉक्यूमेंट्रीज का सहारा लिया जाता था। मगर 70 के दशक में 'कुंवारा बाप' और 'आ गले लग जा' ने पोलियो की मार्मिक झलक दी। 'माय नेम इज खान' (एस्पर्गर सिंड्रोम), 'गुजारिश' (क्वाड्रीप्लेजिया), 'गजनी' (अम्नेशिया), 'कार्तिक कॉलिंग कार्तिक' (सिजोफ्रेनिया), 'हंसी तो फंसी' (बाइपोलर डिसऑर्डर) जैसी फिल्मों ने रेयर डिजीज को केंद्र में लाया। 'तारे जमीन पर' ने बताया कि पढ़ाई में कमजोरी बदमाशी नहीं, डिस्लेक्सिया जैसा डिसऑर्डर भी हो सकता है। 'ब्लैक', 'यू मी और हम' और 'मैंने गांधी को नहीं मारा' जैसी फिल्मों ने अल्जाइमर व डिमेंशिया को मानवीय संवेदना से दिखाया। बातचीत में तकलीफ संबंधी टूरेट्स सिंड्रोम को पर्दे पर 'हिचकी' के जरिए पहली बार लाया गया।
'गंभीर विषय वाली फिल्म में कहानी का एंगेजिंग होना चाहिए'
'बर्फी' में ऑटिज्म से पीड़ित प्रियंका चोपड़ा और बोल-सुन न सकने वाले रणबीर कपूर को दर्शाया गया। 'भूल भुलैया वन' के जरिए मल्टिपल पर्सनैलिटी डिसऑर्डर को साइकॉलजिकल थ्रिलर के रूप में पेश किया गया। पा जैसी फिल्म से लोगों को प्रोजेरिया जैसी बीमारी के बारे में बताने वाले फिल्मकार आर बाल्की कहते हैं, 'गंभीर विषय वाली फिल्म में कहानी का एंगेजिंग होनी चाहिए। वरना वो डॉक्यूमेंट्री होकर रह जाएगी फिर आप जब किसी रेयर डिसीज पर फिल्म बनाते हैं, तो यह और ज्यादा जरूरी हो जाता है। प्रोजेरिया जैसी बीमारी पर कहानी बनाने का विचार मुझे अमिताभ बच्चन और अभिषेक बच्चन की मस्ती भरी रिलेशनशिप के बाद आया था। लोगों को इस रेयर डिसीज के बारे में तो पता चला ही मगर साथ ही मिस्टर बच्चन को नैशनल अवॉर्ड भी मिला।'
स्टार्स पावर का असर और टैबू पर खुलकर बात
'फिर मिलेंगे' और 'माय ब्रदर निखिल' ने एचआईवी-एड्स जैसे संवेदनशील विषय पर विमर्श शुरू किया। 'शुभ मंगल सावधान' ने इरेक्टाइल डिसफंक्शन को ह्यूमर के जरिए दिखाया, तो 'वीरे दी वेडिंग' ने फीमेल सेक्सुअलिटी को सहजता से प्रस्तुत किया। 'पीकू' ने कब्ज जैसे ‘नॉन-ग्लैमरस’ विषय को मुख्यधारा में लाया। मानसिक स्वास्थ्य जैसे कभी टैबू माने जाने वाले विषयों को 'डियर जिंदगी', 'तमाशा', 'छिछोरे', 'उड़ता पंजाब', 'जिंदगी ना मिलेगी दोबारा' जैसी फिल्मों ने सेंसिटिव ट्रीटमेंट के साथ परोसा और डिप्रेशन, एंग्जायटी, नशे की लत और आत्महत्या जैसे मुद्दों पर डिबेट होने लगी। लोकप्रिय ट्रेड एनालिस्ट तरन आदर्श कहते हैं, 'जब बड़े सितारे किसी दुर्लभ या टैबू वाली बीमारी को पर्दे पर निभाते हैं, तो उसका प्रभाव और पहुंच कई गुना बढ़ जाती है। मगर फिल्मकारों को चाहिए कि रेयर डिसीज का चित्रण सतही या अतिरंजित न हो।'
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