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दूरदर्शन का 34 साल पुराना वो धारावाहिक, जिसकी पॉपुलैरिटी देख छापनी पड़ी थी किताब, पंकज कपूर बने थे बंधुआ मजदूर

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कुछ कहानियां ऐसी होती हैं, जो सीधे दिल पर असर करती हैं। कुछ कलाकार ऐसे होते हैं, जो रूह को छूते हैं। अब कल्‍पना कीजिए एक ऐसे टीवी धारावाहिक का, जिसमें ये दोनों खूबियां हो। एक जमीन से जुड़ी अलहदा कहानी और एक ऐसा कलाकार, जो किरदार को कुछ इस तरह ओढ़ लेता है, जैसे वह उसके जिस्‍म की खाल हो। गुरुवार, 29 मई को भारतीय सिनेमा, थ‍िएटर और टीवी की दुनिया के एक बेहद मंझे हुए कलाकार, पंकज कपूर का जन्‍मदिन है। लुध‍ियाना, पंजाब में 1954 में पैदा हुए पंकज 71 साल के हो गए हैं। हम में से कई लोग उन्‍हें उनके अलग-अलग किरदारों से जानते हैं। किसी के लिए वह मुसद्दीलाल हैं, किसी के लिए करमचंद, तो किसी के लिए 'अब्‍बा जी' जहांगीर खान। लेकिन आज हम बात उनके एक ऐसे टीवी सीरियल की करेंगे, जिसने दूरदर्शन के दिनों में हर दर्शक को 'नीम का पेड़' की छांव का एहसास दिलाया।



तीन बार राष्‍ट्रीय फिल्‍म पुरस्‍कार जीत चुके शाहिद कपूर और ईशान खट्टर के पिता पंकज कपूर 1980 के दशक में घर-घर में मशहूर हुए। वह टीवी पर देश के पहले जासूसी सीरियल में 'करमचंद' (1985) बने। फिर उन्‍होंने 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' (1989) में चुटीले अंदाज का दम दिखाया। 'जबान संभाल के' (1993) में कॉमेडी का तड़का लगाया। टीवी से उनका यह नाता उन्‍हें 'ऑफिस ऑफिस' (2000) तक लाया, जहां भ्रष्‍टाचार से त्रस्‍त एक आम आदमी मुसद्दी लाल के रूप में उनकी पॉपुलैरिटी आसमान छूने लगी। इसी दौर में टीवी सीरियल 'नाम का पेड़' (1991) भी आया।



राही मासूम रज़ा का स्‍क्रीनप्‍ले, जगजीत की आवाज, निदा फाजली के बोल

'नीम का पेड़' कई मायने में बहुत खास है। इसका स्‍क्रीनपले उर्दू और हिंदी के मशहूर कवि-शायद डॉ. राही मासूम रज़ा ने लिखा था। डायरेक्‍शन गुरबीर सिंह ग्रेवाल ने किया था। प्रोड्यूसर नवमान मलिक थे। दूरदर्शन के इस सीरियल का टाइटल सॉन्‍ग 'मुंह की बात सुने हर कोई...' जगजीत सिंह ने गाया था। इसके बोल दिग्‍गज शायर, कवि और गीतकार निदा फाजली ने लिखे थे।





'नीम का पेड़' की कास्‍ट

'नीम का पेड़' 1991 में डीडी लखनऊ चैनल पर शुरू हुआ था। जिसे बाद में दूरदर्शन पर भी प्रसारित किया गया। इसमें पंकज कपूर ने बुधई राम का किरदार निभाया था। उनके साथ अरुण बाली, एसएम जहीर, विजय मिश्रा, प्रीति खरे, सुरेंद्र शर्मा और साक्षी तंवर भी थीं। कहानी एक गांव, उसके जमींदार और उसके बंधुआ मजदूर बुधई राम की है। इस सीरियल के डायलॉग्‍स में अवधी भाषा को उस दौर में खूब पसंद किया गया था।



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इधर टीवी में धमाल, उधर बड़े पर्दे पर रसूख

यह भी दिलचस्‍प है कि जहां पंकज कपूर टीवी पर 80 और 90 के दशक में दिलों में जगह बना रहे थे, वहीं बड़े पर्दे पर छोटे-बड़े किरदारों में अपनी अदायगी का दम दिखा रहे थे। साल 1982 में रिचर्ड एटनबर्ग की 'गांधी' में प्‍यारेलाल नायर के किरदार से शुरू हुआ उनका यह सफर 'मंडी' से होते हुए 1989 में 'राख' के इंस्‍पेक्‍टर पीके तक पहुंचा, फिर 1990 में 'एक डॉक्‍टर की मौत' के लिए उन्‍हें नेशनल अवॉर्ड मिला। 'रोजा' (1992) में लियाकत, 'मकबूल' (2003) में अब्‍बा जी का अद्भुत अंदाज, कहना गलत नहीं होगा कि पंकज पर्दे पर जब, जिस रूप में आए, ऐसा लगा कि बस यही उनका सच है।



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'नीम का पेड़' सीरियल की कहानी

बहरहाल, 'नीम का पेड़' की कहानी की बात करें, तो केंद्र में एक बंधुआ मजदूर और उसका जमींदार है। यह कहानी आजादी से पहले के भारत से शुरू होती है और स्‍वतंत्र भारत में समाप्‍त। इस धारावाहिक में देश में में सामंती और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं, दोनों की अनिश्चितताओं और उसके स्‍याह पक्ष को दिखाया गया है। बुधई (पंकज कपूर) एक भूमिहीन मजदूर है, जो अपने मालिक और जमींदार ज़मीन मिया (अरुण बाली) के प्रति बहुत वफादार है। बुधई का एकलौता बेटा है सुखी राम। बाप की चाहत यही है कि बेटा पढ़-लिख ले और बंधुआ मजदूरी से दूर निकलकर अपने सपनों को पूरा करे।



भ्रष्‍टाचार और स्‍वार्थ पर तगड़ी चोट

कहानी आगे बढ़ती है, तो जमींदार के घर में किस्मत ढलती जाती है। जमींदार का चचेरा भाई (मुस्लिम मिया) चालाकी से उसे एक राजनेता की हत्या के आरोप में जेल भेज देता है। इधर, आजाद भारत में बुधई का बेटा सुखी राम देश की संसद का सदस्य (एमपी) बन जाता है। नए जमींदार (ज़मीन मिया) का बेटा सुखी राम का भरोसेमंद सहयोगी और सलाहकार। लेकिन सत्ता सुखी को भ्रष्ट कर देती है। मजदूर का बेटा सांसद तो बन गया, पर वह अपने पिता की ईमानदारी नहीं सीख सखा। भ्रष्‍टाचार और स्वार्थ के दलदल में धीरे-धीरे सबकुछ बर्बाद हो जाता है।



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धारावाहिक के कारण चर्चा में आया सुल्‍तानपुर का तियारी गांव

इस धारावाहिक का नाम 'नीम का पेड़' इसलिए रखा गया है कि बुधई राम ने बेटे के जन्म पर एक नीम का पेड़ लगाया था। पेड़ और उसका बेटा दोनों ही फलते-फूलते हैं। पेड़ को बुधई के जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव के लिए एक रूपक की तरह इस्तेमाल किया गया है। इसके सभी एपिसोड की शूटिंग उत्तर प्रदेश के सुल्‍तानपुर में तियारी नाम के गांव में हुई थी। इस सीरियल की बदौलत यह गांव भी सुर्ख‍ियों में आ गया।



सीरियल सुपरहिट हुआ, तो इसी नाम से किताब भी छपी

'नीम का पेड़' के सुपरहिट होने के पीछे की कहानी भी कम दिलचस्‍प नहीं है। यह एक ऐसा धारावाहिक बना जिस पर बात में इसी नाम से किताब भी छपी और उसने भी साहित्‍य की दुनिया में अपना एक अलग मुकाम बनाया। दिलचस्‍प बात ये है कि 58 एपिसोड के इस सीरियल की परिकल्‍पना विलायत जाफरी की एक छोटी सी कहानी से हुई थी।



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26 एपिसोड लिखने के बाद डॉ. रज़ा का हो गया था निधन

विलायत जाफ़री उन दिनों दूरदर्शन के लखनऊ सेंटर में स्टेशन डायरेक्‍टर थे। उन्‍होंने अपनी शॉर्ट स्‍टोरी 'नीम का पेड़' पर धारावाहिक लिखने की जिम्‍मेदारी डॉ. राही मासूम रज़ा को सौंपी। 1991 में जब यह सीरियल प्रसारित हुआ, उसके करीब एक साल बाद ही डॉ. रज़ा का 1992 में निधन हो गया। तब त‍क उन्‍होंने इस धारावाहिक के 26 एपिसोड ही लिखे थे।



और फिर विलायत जाफ़री ने वो किया, जो कोई नहीं करता!

डॉ. रजा के निधन से पहले ही यह सीरियल दूरदर्शन पर अपना दबदबा बना चुका था। दर्शकों की जुबान पर इसकी कहानी हर बातचीत का हिस्‍सा बन चुकी थी। देर शाम गांव के मचान पर किरदारों की चर्चा होती थी। ऐसे में मेकर्स ने सीरियल को बंद करने की बजाय इसे आगे बढ़ाने और पूरा करने का फैसला किया। डॉ. राही मासूम रज़ा के निधन के बाद विलायत जाफ़री के बाकी के 32 एपिसोड पूरे किए। लेकिन उन्‍होंने क्रेडिट में खुद को अतिरिक्त लेखक के तौर पर ही रखा। यह डॉ. राही मासूम रज़ा के लिए सम्‍मान का भाव था।

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